रेलगाड़ी की रात
 
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रेलगाड़ी की रात

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ये कहानी लगभग एक साल पुरानी है। हमारे रिश्तेदारों में किसी की मृत्यु हो गई थी। मेरे पति अपने काम में व्यस्त थे, इसलिए मुझे अकेले ही वहाँ जाना पड़ा। सफर ट्रेन का था, और मेरे पति ने मेरे लिए प्रथम श्रेणी एसी में सीट बुक करवा दी थी, ताकि मुझे कोई परेशानी न हो।

ट्रेन रात दस बजे की थी। मेरे पति मुझे स्टेशन तक छोड़ने आए और मेरे कूपे में बिठाकर टिकट चेकर से मिलने चले गए। मेरा कूपा दो सीटों वाला था, और अभी तक दूसरी सीट खाली थी। मैंने अपना सामान ठीक किया और पति का इंतज़ार करने लगी।

थोड़ी देर बाद मेरे पति लौटे, उनके साथ एक काले कोट में एक नौजवान था। वह टिकट चेकर था, जिसकी उम्र करीब छब्बीस साल रही होगी। गोरा रंग, लगभग पौने छह फीट लंबा, और देखने में बेहद आकर्षक। मेरे पति ने उससे मेरा परिचय करवाया। उसका नाम अमित था। वह न सिर्फ़ सुंदर था, बल्कि बातचीत में भी शालीन लग रहा था।

उसने मुझसे कहा, "मैडम, आप चिंता न करें। मैं इसी कोच में हूँ। कोई परेशानी हो तो मुझे बता दीजिएगा, मैं तुरंत हाज़िर हो जाऊँगा। आपकी साथ वाली बर्थ खाली है, और अगर कोई आएगा भी तो सिर्फ़ कोई महिला ही होगी। आप निश्चिंत होकर सो सकती हैं।"

उसकी बातों से मुझे और मेरे पति को राहत मिली। ट्रेन चलने का समय हो गया था, तो मेरे पति नीचे उतर गए। जैसे ही वे उतरे, ट्रेन चल पड़ी। मैंने खिड़की से उन्हें अलविदा कहा और अपनी सीट पर आराम से बैठ गई।

दोस्तों, उस दिन मुझे अपने पति से दूर जाने का बिल्कुल मन नहीं था। वजह थी कि मेरी माहवारी खत्म हुए सिर्फ़ एक दिन बीता था, और ऐसे दिनों में जिस्म की भूख कितनी बढ़ जाती है, ये तो आप सब जानते ही हैं। मैं अपने पति के साथ जी भरकर वक्त बिताना चाहती थी, लेकिन मजबूरी में मुझे ये सफर करना पड़ रहा था। मन उदास था।

तभी कूपे में अमित आया। उसने कहा, "मैडम, आप गेट बंद कर लीजिए। मैं थोड़ी देर में आता हूँ, तब आपका टिकट चेक कर लूँगा।"

उसके जाने के बाद मैंने सोचा कि रात का सफर लंबा है, क्यों न कपड़े बदल लूँ। साड़ी में मुझे नींद नहीं आती। मैंने सूटकेस खोला, लेकिन अफ़सोस! जल्दबाजी में मैं गाउन का ऊपरी जालीदार हिस्सा तो ले आई थी, पर अंदर पहनने वाला हिस्सा घर पर ही छूट गया था। जो मेरे पास था, वह पूरी तरह पारदर्शी था, जिसमें से सब कुछ दिखता था।

दो मिनट सोचने के बाद मेरी वासना ने मुझे एक साहसी फैसला लेने पर मजबूर कर दिया। मैंने सोचा, क्यों न इस सुंदर नौजवान से कुछ मज़ा लिया जाए? ये ख़याल आते ही मैंने वो जालीदार गाउन निकाला और अपनी साड़ी, ब्लाउज़, और पेटीकोट उतार दिए।

अब मेरे शरीर पर सिर्फ़ लाल रंग की ब्रा और पैंटी थी। ऊपर से मैंने वो सफ़ेद जालीदार गाउन पहन लिया, जो नाम का ही गाउन था—उसमें से सब कुछ साफ़ नज़र आ रहा था। और मज़े की बात ये कि मेरी ब्रा और पैंटी भी जालीदार थीं, जिससे मेरे चूचुक तक बाहर से दिख रहे थे। आईने में खुद को देखकर मैं ख़ुद गरम हो गई।

तैयारी पूरी करके मैं सीट पर लेट गई और एक मैगज़ीन पढ़ते हुए अमित का इंतज़ार करने लगी। पाँच मिनट बीत गए, तो मैंने सोचा कि पहले खाना खा लूँ। मैंने घर से लाया हुआ खाना निकाला और खाने लगी। खाते वक्त मुझे ख़याल आया कि अगर बीच में अमित टिकट चेक करने आ गया, तो मुझे उठकर टिकट निकालना पड़ेगा। इसलिए मैंने पर्स से टिकट निकाल लिया।

टिकट हाथ में आते ही मेरे दिमाग में अमित का जवान जिस्म घूम गया। मेरे अंदर की औरत जाग उठी। मैंने पहले से ही पारदर्शी कपड़े पहने थे, और अब मैंने टिकट को अपनी ब्रा में, अपने बड़े-बड़े बूब्स के बीच डाल दिया। टिकट मेरे बाएँ निप्पल के पास से साफ़ दिख रहा था।

तभी कूपे का दरवाज़ा खुला और अमित अंदर आया। मुझे इस हाल में देखकर वह हक्का-बक्का रह गया। पसीना छूटने लगा, और वह इधर-उधर देखने लगा। मैंने उसका हौसला बढ़ाने के लिए मुस्कुराकर कहा, "आइए, अमित जी, बैठिए। खाना लेंगे?"

वह हड़बड़ाते हुए बोला, "न-न-नहीं मैडम, आप खाइए। मैं तो बस टिकट चेक करने आया था। कोई बात नहीं, मैं बाद में आ जाऊँगा।"

मैंने उसे सामने वाली सीट पर बैठने का इशारा करते हुए कहा, "नहीं-नहीं, आप बैठिए। मैं अभी टिकट दिखाती हूँ।"

मैंने खाने का डिब्बा नीचे रखा और टिकट ढूँढने का नाटक करने लगी। बार-बार नीचे झुक रही थी, ताकि वह मेरी छातियाँ अच्छे से देख सके। दोस्तों, मेरे बूब्स की तारीफ़ तो आप सब जानते ही हैं—किसी को भी दीवाना बना सकते हैं।

मैं चाहती थी कि वह ख़ुद मेरे बूब्स में रखे टिकट को देख ले, और ऐसा ही हुआ। उसने इशारा करते हुए कहा, "मैडम, लगता है आपका टिकट आपके ब्लाउज़ में है।"

मैंने नाटक करते हुए गले की ओर देखा और हँसते हुए कहा, "कहाँ यार, मैंने ब्लाउज़ पहना ही कहाँ है? ये तो ब्रा में रखा है।" फिर मैंने खाने से सने हाथों से टिकट निकालने की नाकाम कोशिश की, बार-बार उंगलियाँ डालकर उसे अपने बूब्स दिखाती रही।

जब टिकट और अंदर चला गया, तो मैंने मुस्कुराकर कहा, "सॉरी यार, अब तो आपको ही मेहनत करनी पड़ेगी।"

वह तुरंत मेरे पास आया और मेरे गाउन में हाथ डालते हुए बोला, "क्यों नहीं मैडम, मैं निकाल लूँगा!" उसकी मुस्कान शरारती थी। उसने डरते-डरते हाथ अंदर डाला, लेकिन टिकट मेरे निप्पल के ऊपर अटक गया। अब उसे ब्रा में हाथ डालना ही था।

वह हिचक रहा था, तो मैंने कहा, "हाँ-हाँ, ब्रा में हाथ डालकर निकाल लीजिए न!" मेरी बात सुनते ही उसके हौसले बढ़ गए। उसने पूरा हाथ मेरी ब्रा में डाला। टिकट मिला, लेकिन साथ में मेरी चूची भी उसके हाथ में आ गई। वह शरारती हो गया और मेरी चूची को सहलाने-मसलने लगा।

मैं तो यही चाहती थी। मैंने उसकी ओर देखकर मुस्कुराया। वह और जोश में आ गया और ज़ोर से मेरी चूची दबाने लगा। फिर उसने टिकट निकाला, चेक किया, और आँख मारते हुए बोला, "आप खाना खा लीजिए, मैं बाकी यात्रियों को चेक करके आता हूँ।"

मैंने जवाब दिया, "जल्दी आना!" वह मुस्कुराता हुआ चला गया।

मैंने जल्दी-जल्दी खाना खत्म किया और उसका बेसब्री से इंतज़ार करने लगी। वह भी उतना ही उतावला था, और पाँच-सात मिनट में लौट आया। अंदर आते ही उसने कूपे को लॉक किया और मुझे अपनी बाँहों में भरते हुए बोला, "आओ सोनाली, आज तुम्हें फर्स्ट एसी का पूरा मज़ा दिलाता हूँ।"

मैंने उसकी गर्दन में हाथ डाले और उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए। अगले ही पल हम एक-दूसरे के होंठ चूस रहे थे। वासना की आग भड़क उठी। मेरी जीभ उसके मुँह में चली गई, और वह उसे प्यार से चूसने लगा।

उसका दायाँ हाथ मेरी चूची पर था, और मुझे मज़ा आने लगा था। करीब दो-तीन मिनट की चुम्माचाटी के बाद वह अलग हुआ और बोला, "सोनाली, एक समस्या है।"

"क्या हुआ?" मैंने पूछा।

"मेरा एक साथी, विकास, इसी कोच में है। अगर मैं ज़्यादा देर गायब रहा, तो वह मुझे ढूँढते हुए यहाँ आ जाएगा। क्या उसे बुला लूँ?"

मेरे मन में लड्डू फूटे। दो-दो मर्द! मैंने तुरंत कहा, "हाँ-हाँ, बुला लो। लेकिन किसी और को पता न चले। जल्दी जाओ।"

वह बाहर गया और कुछ मिनट बाद विकास के साथ लौटा। विकास करीब पैंतीस साल का था, काला रंग, थोड़ा मोटा, लेकिन ठीक-ठाक दिखता था। मैंने सोचा, चलो, दो लंड से मेरी प्यास बुझ ही जाएगी।

उन्होंने कूपे लॉक किया और मेरे पास आकर खड़े हो गए। अमित ने परिचय करवाया, "ये मेरा दोस्त विकास है।"

मैंने विकास से हाथ मिलाया और अमित से कहा, "तुमने तो अपना नाम भी नहीं बताया।"

वह हँसा, "मैं अमित हूँ। आप मुझे अमी भी बुला सकती हैं।"

मैंने कहा, "अमी, अच्छा नाम है। लेकिन ये मैडम-मैडम क्या है? मेरा नाम सोनाली है। तुम मुझे कोई सेक्सी नाम से भी बुला सकते हो।"

परिचय के बाद हम खुल गए। वे शरमा रहे थे, तो मैंने पहल की। मैंने अमित के गले में हाथ डालकर उसके होंठ चूसने शुरू कर दिए। वह मेरी कमर पकड़कर मुझे चूमने लगा। विकास खड़ा देख रहा था। मैंने उसे पास बुलाकर उसकी पैंट के ऊपर से लंड पर हाथ फेरा।

कुछ देर हम खड़े-खड़े चूमते रहे। कभी अमित मेरे होंठ चूमता, तो कभी विकास मेरी गर्दन पर दाँत गड़ाता। मैंने उनके लंडों को सहलाकर उन्हें उकसाया।

जब वे गरम हुए, तो उन्होंने मुझे सीट पर लिटाया। अमित मेरे होंठ चूसने और चूचियों से खेलने लगा, जबकि विकास ने मेरी पैंटी उतारकर मेरी चूत चाटना शुरू कर दिया।

मुझे मज़ा आने लगा, लेकिन उनके कपड़े अभी तक नहीं उतरे थे। मैंने कहा, "रुक जाओ यार, सिर्फ़ मेरे ही कपड़े उतारोगे? अपने हथियार भी तो दिखाओ।"

विकास ने अपने कपड़े उतारे और अपना लंड मेरे मुँह के पास लाया। उसका लंड काला, छह इंच लंबा, और तीन इंच मोटा था। मैंने सोचा, ये मेरी गांड के लिए परफेक्ट है। मैंने उसे मुँह में लेने की कोशिश की, पर मोटाई की वजह से मुश्किल हुई। फिर मैंने जीभ से चाटना शुरू किया। उसका स्वाद नारियल पानी जैसा था।

इधर अमित ने भी कपड़े उतारे। उसका लंड सात इंच लंबा, दो इंच मोटा, और गोरा था। मैंने उसे मुँह में लिया, और विकास मेरी चूत चाटने लगा। ट्रेन की रफ़्तार और हमारा जोश—सब मिलकर माहौल गरम कर रहे थे।

अमित मेरे मुँह में धक्के देने लगा और जल्द ही झड़ गया। मैंने उसका सारा रस पी लिया। विकास भी थक गया था। उसने कहा, "मेरा भी चूसो।"

मैंने हँसकर कहा, "सब मेरे मुँह में ही झड़ोगे, तो मेरी चूत का क्या?"

वह बोला, "चिंता मत करो, मैं तेरी चूत में ही पानी डालूँगा।" फिर उसने मुझे कुतिया बनाया और मेरी चूत में लंड डाला। चुदाई शुरू हुई।

अमित ने कपड़े पहने और विकास से कुछ कहा, फिर बाहर चला गया। मुझे चुदाई में मज़ा आ रहा था, तो मैंने ध्यान नहीं दिया। विकास ने मेरी गांड में लंड डालने की कोशिश की। पहली बार फिसला, दूसरी बार अंदर गया। दर्द से मेरी चीख निकली, लेकिन बाद में मज़ा आने लगा।

तभी कूपे का दरवाज़ा खुला और तीन लोग अंदर आए। ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी थी। मैं घबरा गई और कपड़े ढकने लगी। विकास ने कहा, "ये मेरे दोस्त हैं। तुम्हारी चूत की प्यास बुझाने आए हैं।"

मुझे गुस्सा आया। मैंने कहा, "मुझे रंडी समझा है? बाहर निकलो, वरना शोर मचाऊँगी।"

वे डर गए और माफी माँगने लगे। मैंने सोचा, अब इन्होंने मुझे देख ही लिया है, और मेरी प्यास भी बाकी है। मैंने कहा, "ठीक है, आधा घंटा है। जल्दी करो और चले जाओ।"

वे चारों मेरे पास आए। दो ने मेरे बूब्स दबाए, एक ने चूत चाटी, और विकास ने अपना लंड मेरे मुँह में डाला। मैं फिर गरम हो गई। विकास ने मेरी गांड मारी, एक ने चूत में लंड डाला। बाकी दो मेरे मुँह के पास थे।

मैं अपने चरम पर पहुँची। विकास झड़ गया, फिर दूसरा भी। आखिरी बचा राकेश था। उसका लंड मोटा और ताकतवर था। उसने मेरी चूत को ज़ोर-ज़ोर से चोदा। मैं कई बार झड़ी। आखिर में उसने अपना रस मेरे मुँह में डाला। स्वाद लाजवाब था।

तो दोस्तों, ये थी मेरी "रेलगाड़ी की रात"। अगली बार और मज़ेदार कहानी के लिए तैयार रहें।

तुम्हारी प्यारी सोनाली।

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रेलगाड़ी की रात: भाग दो
पिछली रात की घटना के बाद मैं पूरी तरह थक चुकी थी। ट्रेन की सीट पर लेटे-लेटे मेरी आँख लग गई थी। अमित, विकास, और उनके दोस्तों ने मुझे इतना थका दिया था कि मुझे होश ही नहीं रहा कि ट्रेन कब मेरे स्टेशन से गुजर गई। जब मेरी आँख खुली, तो सुबह के सात बज चुके थे। मैंने घबरा कर अपनी घड़ी देखी और खिड़की से बाहर झाँका। ट्रेन किसी अनजान स्टेशन पर रुकी हुई थी, और बोर्ड पर लिखा था "काशीपुर जंक्शन"। मेरा स्टेशन तो दो घंटे पहले निकल चुका था!
मैंने जल्दी से अपने कपड़े ठीक किए। वो जालीदार गाउन तो अब किसी काम का नहीं था, इसलिए मैंने सूटकेस से एक सलवार-कमीज़ निकाली और पहन ली। मेरा सामान समेटा और कूपे से बाहर निकली। स्टेशन छोटा-सा था, और प्लेटफॉर्म पर ज्यादा भीड़ नहीं थी। मैंने सोचा कि अब क्या करूँ? अगली ट्रेन शायद दोपहर को होगी, और मेरे पास कोई जान-पहचान भी नहीं थी यहाँ।
मैं प्लेटफॉर्म पर बेंच पर बैठ गई और अपने पति को फोन लगाने की कोशिश की, लेकिन नेटवर्क नहीं था। मन बेचैन था। तभी मेरी नज़र कुछ दूर खड़े तीन-चार लड़कों पर पड़ी। वे स्थानीय गुंडे जैसे लग रहे थे—जींस, बनियान, और गले में रंग-बिरंगे रुमाल। उनकी उम्र बीस से पच्चीस साल के बीच होगी। वे मुझे घूर रहे थे और आपस में कुछ फुसफुसा रहे थे। मेरे मन में डर पैदा होने लगा।
मैंने सोचा कि यहाँ रुकना ठीक नहीं। मैंने अपना बैग उठाया और स्टेशन के बाहर की ओर चल पड़ी। बाहर निकलते ही मुझे एक चाय की दुकान दिखी। मैंने सोचा, पहले कुछ खा-पी लूँ, फिर स्टेशन मास्टर से अगली ट्रेन के बारे में पूछूँगी। मैं चाय की दुकान पर रुकी और एक चाय माँगी। दुकानवाला, एक मोटा-ताजा मर्द, जिसकी उम्र करीब चालीस साल होगी, मुझे देखकर मुस्कुराया और बोला, "मैडम, आप यहाँ की नहीं लगतीं। कहाँ से आई हैं?"
मैंने संक्षेप में बताया कि मैं ट्रेन में अपने स्टेशन से चूक गई हूँ और अब अगली ट्रेन का इंतज़ार कर रही हूँ। उसने सहानुभूति दिखाते हुए कहा, "अरे, कोई बात नहीं। यहाँ अगली ट्रेन दोपहर बारह बजे है। आप तब तक मेरे गेस्टहाउस में रुक सकती हैं। ये स्टेशन के पास ही है। वहाँ आप आराम कर लेंगी।"
मुझे उसकी बात में भरोसा नहीं हुआ, लेकिन मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था। मैंने सोचा, चलो, देख लेती हूँ। मैंने चाय पी और उससे कहा, "ठीक है, लेकिन ज्यादा समय नहीं रुकूँगी।"
वह मुझे एक गलियारे से होते हुए एक छोटे-से गेस्टहाउस में ले गया। गेस्टहाउस पुराना और टूटा-फूटा था, लेकिन साफ़-सुथरा लग रहा था। उसने मुझे एक कमरा दिखाया, जिसमें एक पलंग, एक टेबल, और एक पुराना पंखा था। मैंने अपना बैग रखा और उससे पूछा, "यहाँ कोई और ठहरा हुआ है?"
वह हँसते हुए बोला, "नहीं मैडम, अभी तो आप अकेली हैं। आप निश्चिंत रहें।" फिर वह चला गया। मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद किया और पलंग पर लेट गई। लेकिन मन अभी भी बेचैन था।
कुछ देर बाद मुझे बाहर कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। मैंने खिड़की से झाँका तो देखा कि वही गुंडे, जो स्टेशन पर मुझे घूर रहे थे, गेस्टहाउस के बाहर खड़े थे। वे उस दुकानवाले से बात कर रहे थे और मेरी ओर इशारा कर रहे थे। मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई। मैं समझ गई कि ये लोग कोई साज़िश रच रहे हैं।
मैंने जल्दी से दरवाज़ा चेक किया, लेकिन ताला पुराना और कमज़ोर था। मैंने सोचा कि अगर ये लोग अंदर आए, तो मैं इनका मुकाबला नहीं कर पाऊँगी। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने डरते-डरते पूछा, "कौन है?"
बाहर से आवाज़ आई, "मैडम, मैं रामू हूँ, चायवाला। आपके लिए नाश्ता लाया हूँ।"
मुझे भूख तो लगी थी, लेकिन मैंने दरवाज़ा खोलने में हिचक की। फिर सोचा, शायद मैं ज़्यादा सोच रही हूँ। मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा कि रामू अकेला नहीं था। उसके साथ वही तीन गुंडे थे। उनके चेहरों पर शरारती मुस्कान थी।
मैंने गुस्से में कहा, "ये क्या तमाशा है? मैंने सिर्फ़ नाश्ता माँगा था। ये लोग यहाँ क्या कर रहे हैं?"
रामू ने ढीठपन से कहा, "अरे मैडम, ये मेरे भाई हैं। बस आपसे मिलने आए हैं। आप तो शहर की माल लगती हैं, सोचा थोड़ा मज़ा हो जाए।"
मेरी साँसें रुक गईं। मैंने दरवाज़ा बंद करने की कोशिश की, लेकिन एक गुंडे ने, जिसका नाम बाद में पता चला कि बबलू था, दरवाज़ा पकड़ लिया। वह करीब छह फीट लंबा, मज़बूत बदन वाला, और रंग में साँवला था। उसने कहा, "कहाँ भाग रही हो, रानी? अब तो तू हमारे जाल में फँस चुकी है।"
मैं चिल्लाने वाली थी, लेकिन दूसरे गुंडे, जिसका नाम कालू था, ने मेरे मुँह पर हाथ रख दिया। तीसरा, जो सबसे छोटा और पतला था, जिसे वे छोटू बुला रहे थे, मेरे हाथ पकड़कर मुझे अंदर खींचने लगा। रामू ने दरवाज़ा बंद कर दिया और बाहर से ताला लगा दिया।
मैं डर के मारे काँप रही थी, लेकिन मेरे दिमाग में रात की घटना भी घूम रही थी। मैंने सोचा, अगर मैं इनका विरोध करूँगी, तो ये मुझे मार भी सकते हैं। शायद इनके साथ थोड़ा नरम बर्ताव करूँ, तो बात बन जाए। मैंने डरते-डरते कहा, "देखो, मैं तुम लोगों को कुछ नहीं कहूँगी। बस मुझे जाने दो। मेरे पास पैसे हैं, ले लो।"
बबलू हँसते हुए बोला, "पैसे तो हम बाद में भी ले लेंगे, मालकिन। लेकिन पहले हमें तेरा माल चाहिए।" उसने मेरी कमीज की ओर इशारा किया। मेरे पास अब कोई रास्ता नहीं था।
कालू ने मेरे मुँह से हाथ हटाया और मेरी कमीज खींचने लगा। मैंने उसे धक्का देने की कोशिश की, लेकिन वह मुझसे कहीं ज़्यादा ताकतवर था। छोटू ने मेरे हाथ पीछे बाँध दिए। रामू कोने में खड़ा तमाशा देख रहा था।
बबलू ने मेरी कमीज फाड़ दी, और मेरी ब्रा नज़र आने लगी। उसने मेरे बूब्स को ज़ोर से दबाया और बोला, "वाह, क्या माल है! शहर की रंडी, आज तुझे मज़ा चखाएँगे।"
मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा, "प्लीज़, ऐसा मत करो। मैं तुम्हें जो चाहिए, दूँगी।"
कालू ने मेरी सलवार का नाड़ा खींचा और उसे नीचे सरका दिया। अब मैं सिर्फ़ ब्रा और पैंटी में थी। छोटू मेरे बूब्स को चूमने लगा, जबकि बबलू मेरी पैंटी में हाथ डालने की कोशिश करने लगा। मैंने अपने आपको छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन उनकी पकड़ मज़बूत थी।
तभी मेरे दिमाग में एक अजीब-सा ख़याल आया। रात की चुदाई ने मेरे जिस्म की आग को और भड़का दिया था। मैं डर रही थी, लेकिन कहीं न कहीं मेरी वासना भी जाग रही थी। मैंने सोचा, अगर मैं इनका साथ दे दूँ, शायद ये मुझे ज़्यादा नुकसान न पहुँचाएँ।
मैंने धीरे से कहा, "ठीक है, मैं तुम लोगों का विरोध नहीं करूँगी। लेकिन प्लीज़, मुझे चोट मत पहुँचाना।"
मेरी बात सुनकर बबलू ठहाका मारकर हँसा, "वाह, रानी, अब आई ना लाइन पर! चल, अब मज़ा शुरू करते हैं।"
उसने मेरी ब्रा का हुक खोल दिया, और मेरे बूब्स बाहर आ गए। कालू ने मेरी पैंटी उतारी और मेरी चूत को सहलाने लगा। छोटू मेरे निप्पल्स को चूस रहा था। रामू अब भी कोने में खड़ा था, लेकिन उसकी आँखों में लालच साफ़ दिख रहा था।
बबलू ने मुझे पलंग पर लिटाया और मेरी टाँगें फैलाईं। उसने अपनी जींस उतारी और अपना लंड बाहर निकाला। उसका लंड करीब सात इंच लंबा और मोटा था। उसने मेरी चूत पर लंड रगड़ा और एक ज़ोरदार धक्का मारा। मैं चिल्ला उठी, "आह... धीरे... मार डालोगे क्या?"
वह हँसते हुए बोला, "अरे, रानी, अभी तो शुरुआत है।" उसने ज़ोर-ज़ोर से धक्के मारने शुरू कर दिए। दर्द के साथ-साथ मुझे मज़ा भी आने लगा। मेरी चूत पहले से ही गीली थी, जिससे उसका लंड आसानी से अंदर-बाहर हो रहा था।
कालू मेरे मुँह के पास आया और अपना लंड मेरे होंठों पर रगड़ने लगा। उसका लंड छोटा, लेकिन मोटा था। मैंने उसे मुँह में लिया और चूसना शुरू किया। छोटू मेरे बूब्स को मसल रहा था और बीच-बीच में मेरे निप्पल्स को काट रहा था।
रामू अब खड़ा नहीं रह सका। उसने अपनी पैंट उतारी और मेरे पास आया। उसका लंड औसत था, लेकिन सख्त था। उसने छोटू को हटाया और मेरे बूब्स को चूसने लगा। अब मैं पूरी तरह उनकी गिरफ्त में थी। बबलू मेरी चूत मार रहा था, कालू मेरे मुँह में धक्के दे रहा था, और रामू मेरे बूब्स से खेल रहा था। छोटू मेरी जाँघों को सहला रहा था।
कुछ देर बाद बबलू ने मेरी चूत में तेज़ धक्के मारे और चिल्लाते हुए झड़ गया। उसका गर्म वीर्य मेरी चूत में भर गया। मैं भी अपने चरम पर थी और ज़ोर से सिसकारियाँ ले रही थी, "आह... हाँ... और ज़ोर से... आह..."
बबलू हट गया, और कालू ने उसकी जगह ली। उसने मेरी टाँगें ऊपर उठाईं और मेरी चूत में लंड डाल दिया। उसकी रफ़्तार बबलू से भी तेज़ थी। मैं दर्द और मज़े के बीच झूल रही थी। रामू अब मेरे मुँह के पास आया और अपना लंड मेरे होंठों पर रगड़ा। मैंने उसे भी चूसना शुरू किया।
छोटू ने मेरी गांड की ओर ध्यान दिया। उसने मेरी गांड के छेद पर उंगली फेरी और धीरे-धीरे अंदर डालने की कोशिश की। मैंने विरोध किया, "नहीं... वहाँ नहीं... प्लीज़..."
लेकिन बबलू ने मेरे हाथ पकड़ लिए और कहा, "चुप कर, रानी। आज तो तेरी हर छेद की प्यास बुझाएँगे।" छोटू ने अपनी उंगली मेरी गांड में डाली और उसे गीला करने के लिए थूक का इस्तेमाल किया। फिर उसने अपना लंड मेरी गांड पर टिकाया और धीरे-धीरे अंदर धकेलने लगा।
मैं चिल्ला उठी, "आह... नहीं... दर्द हो रहा है... रुक जाओ..." लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी। छोटू का लंड पतला था, जिससे थोड़ी देर बाद दर्द कम हुआ और मैं उसकी रफ़्तार के साथ तालमेल बिठाने लगी।
अब मेरी चूत, गांड, और मुँह, तीनों में लंड थे। मैं पूरी तरह उनकी वासना का शिकार बन चुकी थी। कालू ने मेरी चूत में तेज़ धक्के मारे और झड़ गया। उसका वीर्य मेरी चूत से बाहर बहने लगा। रामू ने मेरे मुँह में धक्के तेज़ किए और चिल्लाते हुए झड़ गया। मैंने उसका रस निगल लिया।
छोटू अब भी मेरी गांड मार रहा था। उसकी रफ़्तार ध [missing text] मैं थक चुकी थी, लेकिन मेरी चूत की आग अभी भी बुझी नहीं थी। मैंने बबलू की ओर देखा, जो अब फिर से तैयार लग रहा था। मैंने कहा, "बबलू, मेरी चूत को और चोदो... प्लीज़..."
बबलू हँसते हुए मेरे पास आया और मेरी चूत में लंड डाल दिया। अब छोटू मेरी गांड और बबलू मेरी चूत मार रहे थे। मैं अपने चरम पर पहुँच रही थी। मेरे मुँह से सिसकारियाँ निकल रही थीं, "आह... हाँ... और ज़ोर से... चोदो मुझे... फाड़ दो मेरी चूत... आह..."
छोटू ने मेरी गांड में तेज़ धक्के मारे और झड़ गया। उसका गर्म वीर्य मेरी गांड में भर गया। बबलू ने भी अपनी रफ़्तार बढ़ाई और मेरी चूत में फिर से झड़ गया। मैं भी अपने चरम पर पहुँच गई और ज़ोर से चिल्लाते हुए झड़ गई, "आह... हाँ... बस... मेरे राजा... आह..."
सब झड़ चुके थे। मैं पलंग पर निढाल पड़ी थी। मेरी चूत और गांड से उनका वीर्य बह रहा था। मेरे जिस्म में दर्द था, लेकिन कहीं न कहीं तृप्ति भी थी।
बबलू ने मेरे कपड़े मेरी ओर फेंके और कहा, "चल, रानी, अब कपड़े पहन ले। तेरा स्टेशन तो चूक गया, लेकिन हमने तुझे ऐसी सैर कराई कि तू कभी नहीं भूलेगी।"
मैंने चुपचाप कपड़े पहने। रामू ने दरवाज़ा खोला और कहा, "मैडम, अगली ट्रेन दो घंटे बाद है। तुम चाहो तो यहाँ रुक सकती हो।"
मैंने गुस्से से कहा, "नहीं, मैं स्टेशन पर इंतज़ार करूँगी।" मैंने अपना बैग उठाया और बाहर निकल गई। स्टेशन पर पहुँचकर मैंने एक कोने में बैठकर अगली ट्रेन का इंतज़ार किया। मेरे मन में डर, शर्म, और अजीब-सी तृप्ति का मिश्रण था।
तो दोस्तों, ये थी मेरी काशीपुर जंक्शन की कहानी। अगली बार फिर किसी नई सैर की दास्तान लेकर आऊँगी।
तुम्हारी सोनाली।

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काशीपुर की गलियाँ
काशीपुर जंक्शन की उस भयानक और उन्मादी रात के बाद मैंने सोचा था कि अब सब कुछ सामान्य हो जाएगा। मेरे मन में एक अजीब-सा मिश्रण था—डर, शर्म, और कहीं न कहीं एक अनजानी तृप्ति। मैंने खुद से वादा किया कि अब कोई जोखिम नहीं लूँगी। दोपहर बारह बजे की ट्रेन में चढ़ते वक्त मैंने एक सादी हरी साड़ी पहनी थी, ताकि किसी का ध्यान न जाए। साड़ी का पल्लू मेरे कंधों पर अच्छे से टिका था, और मैंने अपने बालों को एक साधारण जूड़े में बाँध रखा था। मेरा इरादा सिर्फ़ रामपुर पहुँचने का था, जहाँ मुझे अपने रिश्तेदारों से मिलना था। लेकिन किस्मत को शायद मेरे लिए कुछ और ही मंज़ूर था।

ट्रेन का रुकना और गाँव की ओर
ट्रेन अपने समय पर चली, और मैं अपने कूपे में अकेली थी। खिड़की से बाहर देखते हुए मैं काशीपुर की घटनाओं को भूलने की कोशिश कर रही थी। लेकिन दो घंटे बाद ही ट्रेन अचानक एक ज़ोरदार झटके के साथ रुक गई। मेरे कूपे में हल्की हलचल हुई, और बाहर कुछ यात्रियों की आवाज़ें सुनाई दीं। मैंने खिड़की से झाँका, लेकिन चारों ओर सिर्फ़ खेत और दूर-दूर तक फैली धूल भरी ज़मीन दिख रही थी। कोई स्टेशन नहीं था।

कंडक्टर ने घोषणा की, "यात्रियों, कृपया ध्यान दें। इंजन में तकनीकी खराबी आ गई है। मरम्मत में कम से कम छह से आठ घंटे लग सकते हैं। पास में एक गाँव है, जहाँ आप खाना और आराम कर सकते हैं।"

मेरे मन में बेचैनी बढ़ गई। इतने घंटे ट्रेन में बैठना मुमकिन नहीं था, और आसपास कोई सुविधा भी नहीं दिख रही थी। कुछ अन्य यात्री पहले ही अपने सामान के साथ उतरने लगे थे। मैंने भी अपना छोटा-सा बैग उठाया और ट्रेन से उतर गई। बाहर गर्मी तप रही थी, और धूल भरे रास्ते पर पैदल चलना मुश्किल था। कुछ पुरुष यात्रियों ने मुझे देखा, लेकिन मैंने नज़रें झुका रखीं। मैं नहीं चाहती थी कि कोई मेरी ओर ध्यान दे।

आधे घंटे की पैदल यात्रा के बाद हम एक छोटे-से गाँव में पहुँचे। गाँव साधारण था—मिट्टी के घर, कुछ पक्की दुकानें, और बीच में एक बड़ा-सा ढाबा। ढाबे का बोर्ड गर्व से चमक रहा था: "विक्रम का ढाबा"। बाहर कुछ ट्रक खड़े थे, और अंदर से पराठों, दाल, और मसालों की ख़ुशबू आ रही थी। ढाबे के बाहर कुछ मर्द बैठे बीड़ी पी रहे थे, और उनकी बातचीत की आवाज़ें हवा में तैर रही थीं। मैंने एक गहरी साँस ली और ढाबे के अंदर घुस गई।

विक्रम का ढाबा
ढाबे का माहौल जीवंत था। लकड़ी की मेज़ों पर कुछ ट्रक ड्राइवर और स्थानीय लोग खाना खा रहे थे। दीवारों पर पुराने बॉलीवुड पोस्टर और कुछ रंग-बिरंगे कैलेंडर टंगे थे। एक पुराना रेडियो धीमी आवाज़ में गाने बजा रहा था। मैं जैसे ही अंदर घुसी, एक लंबा, मज़बूत मर्द मेरी ओर मुड़ा। उसकी काली दाढ़ी, गहरी आँखें, और काले कुर्ते में वह किसी जमींदार जैसा लग रहा था। उसकी उम्र करीब सैंतीस-अड़तीस रही होगी। वह मुस्कुराया और बोला, "आइए मैडम, स्वागत है। क्या खाएँगी?"

उसकी आवाज़ में एक अजीब-सी गर्मजोशी थी, जो मुझे तुरंत भा गई। मैंने थकान भरे स्वर में कहा, "बस कुछ खाना और पानी। मेरी ट्रेन खराब हो गई है।"

वह मेरे पास आया और बोला, "मेरा नाम विक्रम है। ये मेरा ढाबा है। आप चिंता मत करो। यहाँ खाना भी मिलेगा, और अगर रुकना चाहें तो ऊपर कमरा भी है।"

मैंने उसकी बात पर गौर किया। उसकी आँखों में कुछ ऐसा था जो मुझे सतर्क कर रहा था, लेकिन साथ ही उसकी मुस्कान में एक भरोसा भी था। काशीपुर की घटना ने मुझे सिखा दिया था कि हर किसी पर यक़ीन करना ठीक नहीं। मैंने कहा, "बस खाना चाहिए। फिर मैं स्टेशन पर इंतज़ार करूँगी।"

विक्रम ने हँसकर कहा, "जैसी आपकी मर्ज़ी। लेकिन यहाँ रात को मज़ा होता है। अगर रुकेंगी, तो देख सकती हैं।"

मैंने उसकी बात को टाल दिया और एक कोने की मेज़ पर बैठ गई। विक्रम ने मेरे लिए दाल, रोटी, और सब्ज़ी मँगवाई। खाना खाते वक्त मेरी नज़र एक जवान लड़के पर पड़ी, जो बार-बार मेरी ओर देख रहा था। वह पतला, गोरा, और चेहरे पर शरारती मुस्कान लिए था। उसकी उम्र करीब पच्चीस रही होगी। वह मेरे पास आया और बोला, "मैडम, आप शहर से हैं ना? यहाँ तो आप जैसी ख़ूबसूरत औरत कभी नहीं देखी।"

मैंने हँसकर कहा, "बस, रास्ते में फँस गई हूँ।"

वह रुका नहीं। "मैं राजू हूँ, विक्रम भैया का छोटा भाई। टेंशन मत लो, हम सब संभाल लेंगे।" उसकी आँखें चमक रही थीं, और मुझे लगा कि वह मुझसे छेड़छाड़ की कोशिश कर रहा है।

तभी एक औरत मेरी मेज़ पर चाय रखने आई। वह थी ललिता, ढाबे की वेट्रेस। उसकी उम्र करीब तीस साल रही होगी। उसका चेहरा सख्त लेकिन आकर्षक था, और उसने मुझे तीखी नज़रों से देखा। उसने राजू से कहा, "क्या फालतू बातें कर रहा है? जा, काम कर।"

ललिता की आवाज़ में जलन थी। मैं समझ गई कि वह राजू के मुझ पर ध्यान देने से नाराज़ थी। मैंने उसे मुस्कुराकर कहा, "अरे, कोई बात नहीं। ये तो बस मज़ाक कर रहा है।"

ललिता ने जवाब नहीं दिया और चली गई। लेकिन उसकी नज़रें मुझे परख रही थीं। मैंने खाना खत्म किया और विक्रम से पूछा, "ट्रेन कब तक ठीक होगी?"

उसने कहा, "रात तक शायद। आप चाहें तो ऊपर कमरे में आराम कर लें। या फिर..." उसने रुककर मेरी ओर देखा, "रात को यहाँ असली मज़ा होता है। देखना चाहेंगी?"

मेरी उत्सुकता जागी। काशीपुर की घटना ने मुझे डराया था, लेकिन मेरे अंदर की औरत अभी भी बेकाबू थी। मैंने पूछा, "कैसा मज़ा?"

विक्रम ने रहस्यमयी अंदाज़ में कहा, "आइए, दिखाता हूँ।"

जुआघर का नशा
रात होने पर विक्रम मुझे ढाबे के पीछे एक गुप्त कमरे में ले गया। कमरा मद्धम रोशनी से भरा था, और हवा में सिगरेट, शराब, और पसीने की गंध थी। लकड़ी की मेज़ पर कुछ मर्द बैठे ताश खेल रहे थे। उनके चेहरों पर उत्साह और लालच साफ़ दिख रहा था। एक मर्द, जिसका नाम श्याम था, मुझे देखकर उठ खड़ा हुआ। वह करीब बत्तीस साल का था, दाढ़ी वाला, और चेहरे पर एक जंगली आकर्षण। उसने मज़ाकिया लहजे में कहा, "ये कौन रानी है, विक्रम? कहाँ से लाया इतना माल?"

विक्रम ने हँसकर कहा, "ये सोनाली मैडम हैं। ट्रेन की यात्री। आज हमारे मेहमान।"

श्याम की आँखों में वासना थी, लेकिन उसकी मुस्कान में कुछ ईमानदारी भी थी। मैंने कमरे का जायज़ा लिया। मेज़ पर ताश के पत्ते बिखरे थे, और पास में कुछ शराब की बोतलें और गिलास रखे थे। दीवारों पर पुराने अखबार चिपके थे, और एक कोने में एक पुराना पंखा धीरे-धीरे घूम रहा था। मैं एक कुर्सी पर बैठ गई।

विक्रम ने कहा, "मैडम, यहाँ हम ताश खेलते हैं, लेकिन दाँव थोड़ा अलग है। पैसे के साथ-साथ कुछ... ख़ास चीज़ें भी दाँव पर लगती हैं। खेलेंगी?"

मेरे अंदर का रोमांच जाग उठा। मैंने काशीपुर में जो कुछ सहा था, उसने मुझे सतर्क तो बनाया था, लेकिन यहाँ मैं खुद को नियंत्रण में महसूस कर रही थी। मैंने हँसकर कहा, "ठीक है, लेकिन दाँव क्या है?"

श्याम ने आँख मारते हुए कहा, "हारने वाला विजेता की एक इच्छा पूरी करता है। कुछ भी हो सकता है—नाच, गाना, या..." वह रुक गया, और उसकी आँखें मेरे जिस्म पर टिक गईं।

मैंने हिम्मत जुटाई और कहा, "चलो, खेलते हैं।"

पहला दौर शुरू हुआ। मैंने ध्यान से खेला और किस्मत से जीत गई। कमरे में तालियाँ बजीं। श्याम ने मुझसे पूछा, "बोलो, रानी, क्या इच्छा है?"

मैंने मज़ाक में कहा, "तुम सब एक गाना गाओ।"

सब हँस पड़े। विक्रम ने रेडियो चालू किया, और उन्होंने एक देसी गाना गाया। माहौल हल्का हो गया। लेकिन अगले दौर में मैं हार गई। विक्रम, जो विजेता था, ने कहा, "सोनाली, अब आपको एक नाच दिखाना होगा।"

मैंने हँसकर कहा, "ठीक है।" मैं उठी और धीमे-धीमे अपनी साड़ी का पल्लू सरकाते हुए नाचने लगी। मेरी कमर की लचक और बूब्स की उभार ने सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। राजू की आँखें चमक रही थीं, और श्याम ने सीटी बजाई। मैंने जानबूझकर अपनी साड़ी को थोड़ा और नीचे सरकाया, ताकि मेरी गहरी नाभि दिखे। कमरे का माहौल गरम हो गया।

कामुक दाँव और उन्माद
खेल आगे बढ़ा, और दाँव और साहसी होने लगे। एक दौर में मैं फिर हारी, और इस बार विक्रम ने कहा, "सोनाली, अब तुम्हें रात मेरे साथ बितानी होगी।"

मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई। मैंने काशीपुर की घटना को याद किया, लेकिन यहाँ माहौल अलग था। मैंने नियंत्रण लेते हुए कहा, "ठीक है, लेकिन सिर्फ़ तुम नहीं। राजू और श्याम भी होंगे।"

कमरे में सन्नाटा छा गया, फिर सब ठहाके मारकर हँस पड़े। विक्रम ने कहा, "वाह, रानी, तू तो असली माल है!"

हम ढाबे के ऊपर एक निजी कमरे में गए। कमरा साधारण था—एक बड़ा पलंग, मद्धम रोशनी, और एक पुराना पंखा। मैंने अपनी साड़ी उतारी, और अब सिर्फ़ लाल रंग का ब्लाउज़ और पेटीकोट में थी। मेरे बूब्स ब्लाउज़ में कसकर उभर रहे थे, और मेरी कमर की गोलाई सबकी नज़रों को ललचा रही थी।

विक्रम ने मुझे अपनी बाँहों में लिया और मेरे होंठ चूसने शुरू कर दिए। उसकी मर्दाना ख़ुशबू और गर्म साँसों ने मुझे मदहोश कर दिया। उसने मेरे ब्लाउज़ के बटन खोले, और मेरी ब्रा नज़र आई। उसने मेरी चूचियों को ज़ोर से दबाया और कहा, "सोनाली, तेरा ये माल तो क़यामत है।"

मैं सिसकारी, "आह... विक्रम... धीरे... आह..."

राजू मेरे पीछे आया और मेरे पेटीकोट का नाड़ा खींच दिया। मेरी पैंटी नज़र आई, और उसने मेरी गांड को सहलाना शुरू किया। श्याम मेरे सामने आया और मेरी ब्रा उतार दी। मेरे बूब्स आज़ाद हो गए, और वह मेरे निप्पल्स को चूसने लगा। मैं तीनों मर्दों के बीच फँस चुकी थी, और मेरी चूत पहले से ही गीली थी।

विक्रम ने मेरी टाँगें फैलाईं और मेरी पैंटी उतार दी। उसने मेरी चूत को चूमना शुरू किया। उसकी जीभ मेरे दाने को रगड़ रही थी, और मैं चिल्ला उठी, "आह... विक्रम... हाँ... ऐसे ही... चाटो... आह..."

राजू ने मेरी गांड के छेद को चाटना शुरू किया। उसकी जीभ ने मेरे छेद को गीला किया, और मैं सिहर उठी। श्याम ने अपना लंड मेरे मुँह में डाल दिया। उसका लंड करीब सात इंच लंबा और मोटा था। मैंने उसे चूसना शुरू किया, और मेरे मुँह से "सुड़प... सुड़प..." की आवाज़ें आने लगीं।

विक्रम ने मेरी चूत में अपना लंड डाला। उसका लंड मोटा और सख्त था। उसने ज़ोरदार धक्के मारने शुरू किए, और मैं चिल्लाई, "आह... विक्रम... ज़ोर से... फाड़ दो मेरी चूत... आह..."

राजू ने मेरी गांड में धीरे-धीरे अपना लंड डाला। उसका लंड पतला लेकिन लंबा था। दर्द हुआ, लेकिन मैं इतनी गरम थी कि मैंने उसे रोका नहीं। श्याम मेरे मुँह में धक्के मार रहा था। मेरे तीनों छेदों में लंड थे, और मैं अपने चरम पर पहुँच रही थी। मैं चिल्लाई, "आह... हाँ... चोदो मुझे... फाड़ दो... आह..." और ज़ोर से झड़ गई। मेरी चूत का पानी विक्रम के लंड को भिगो रहा था।

विक्रम ने मेरी चूत में तेज़ धक्के मारे और चिल्लाते हुए झड़ गया। उसका गर्म वीर्य मेरी चूत में भर गया। राजू ने मेरी गांड में धक्के तेज़ किए और वह भी झड़ गया। श्याम ने मेरे मुँह में पिचकारी छोड़ी, और मैंने उसका रस निगल लिया।

ललिता का आगमन
हम चारों थककर पलंग पर लेट गए। मैं नंगी थी, और मेरा जिस्म पसीने और वीर्य से चमक रहा था। तभी कमरे का दरवाज़ा खुला, और ललिता अंदर आई। उसकी आँखों में गुस्सा था। "ये क्या तमाशा है?" उसने चिल्लाकर कहा।

मैंने उसे शांत करते हुए कहा, "ललिता, गुस्सा मत कर। आ, बैठ।"

वह हिचकते हुए मेरे पास बैठ गई। मैंने उसका हाथ पकड़ा और कहा, "तू भी तो मज़ा ले सकती है। ज़िंदगी में कभी-कभी खुलकर जीना चाहिए।"

मेरी बात ने उसे चौंकाया, लेकिन उसकी आँखों में उत्सुकता थी। मैंने उसे चूमा, और वह मेरे होंठ चूसने लगी। उसका चुंबन में एक अजीब-सी नरमी थी। मैंने उसकी साड़ी उतारी, और उसका गोरा जिस्म नज़र आया। उसके बूब्स छोटे लेकिन सख्त थे। मैंने उसके निप्पल्स को चूसा, और वह सिसकारी, "आह... सोनाली... ये क्या... आह..."

विक्रम, राजू, और श्याम हमें देखकर फिर गरम हो गए। विक्रम ने ललिता को अपनी ओर खींचा और उसकी चूत में लंड डाल दिया। ललिता चिल्लाई, "आह... विक्रम... ज़ोर से... चोदो..."

मैंने राजू का लंड फिर से चूसा, और श्याम मेरी चूत चाटने लगा। कमरा सिसकारियों, चुदाई की आवाज़ों, और पलंग की चरमराहट से गूँज रहा था। ललिता और मैं एक-दूसरे को चूम रही थीं, और हमारी सिसकारियाँ एक साथ निकल रही थीं, "आह... हाँ... और ज़ोर से... आह..."

ललिता जल्दी ही झड़ गई, और विक्रम ने उसकी चूत में अपना वीर्य छोड़ दिया। मैंने राजू और श्याम को अपने ऊपर लिया। राजू मेरी चूत में और श्याम मेरी गांड में धक्के मार रहे थे। मैं फिर से अपने चरम पर पहुँची और चिल्लाई, "आह... हाँ... मेरे राजा... चोदो... फाड़ दो... आह..." और झड़ गई।

पुलिस की दस्तक
अचानक बाहर से ज़ोर की दस्तक हुई। "खोलो दरवाज़ा! पुलिस!" एक कड़क आवाज़ आई।

हम सब चौंक गए। विक्रम ने जल्दी से कपड़े पहने और दरवाज़ा खोला। वहाँ इंस्पेक्टर राकेश खड़ा था—लंबा, मज़बूत, और चेहरे पर सख्ती। उसकी उम्र करीब चालीस रही होगी। उसने कहा, "विक्रम, तेरा जुआघर अब बंद होगा। मेरे पास सबूत हैं।"

मैंने स्थिति को संभाला। मैंने अपनी साड़ी ठीक की और राकेश के पास गई। मेरे बाल बिखरे थे, और मेरे चेहरे पर अभी भी चुदाई की चमक थी। मैंने धीरे से उसका हाथ पकड़ा और कहा, "साहब, ये सब गलतफहमी है। आइए, अंदर बात करते हैं।"

मैं उसे एक अलग कमरे में ले गई। उसकी आँखें मेरे जिस्म पर टिकी थीं। मैंने उसकी पैंट का बटन खोला और उसका लंड बाहर निकाला। उसका लंड मोटा और कड़क था, करीब आठ इंच लंबा। मैंने उसे चूसना शुरू किया, और वह सिसकारने लगा, "आह... तू... क्या माल है... चूस... और ज़ोर से..."

मैंने उसे पलंग पर लिटाया और अपनी साड़ी उठाकर उसकी गोद में बैठ गई। उसका लंड मेरी चूत में गहराई तक गया। मैंने धक्के मारने शुरू किए, और वह चिल्लाया, "आह... रानी... चोद... ज़ोर से... फाड़ दे... आह..."

उसकी चुदाई तेज़ और रफ थी। मैं चिल्लाई, "आह... साहब... हाँ... चोदो... मेरी चूत... आह..." और फिर से झड़ गई। राकेश ने मेरी चूत में तेज़ धक्के मारे और चिल्लाते हुए झड़ गया। उसका गर्म वीर्य मेरी चूत में भर गया।

मैंने उसका लंड चाटकर साफ़ किया और कहा, "साहब, अब तो सब ठीक है ना?"

वह पैंट ठीक करते हुए बोला, "ठीक है, इस बार छोड़ता हूँ। लेकिन अगली बार नहीं बख्शूँगा।"

विदाई और आत्ममंथन
सुबह ट्रेन ठीक हो गई थी। विक्रम, राजू, श्याम, और ललिता मुझे स्टेशन तक छोड़ने आए। ललिता ने मुझे गले लगाया और कहा, "सोनाली, तूने मुझे बहुत कुछ सिखाया। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं इतनी खुल सकती हूँ।"

विक्रम ने कहा, "रानी, तूने हमारी रात को यादगार बना दिया। कभी फिर आना।"

श्याम ने आँख मारते हुए कहा, "अगली बार ताश का खेल और पक्का करेंगे।"

मैं हँस पड़ी। मैंने ट्रेन में चढ़कर खिड़की से उन्हें अलविदा कहा। ट्रेन चल पड़ी, और मैं अपनी सीट पर बैठकर सोचने लगी। ये सफर मेरे लिए एक रोलरकोस्टर था। मैंने डर, शर्म, और वासना—सब कुछ महसूस किया। कहीं न कहीं मैं अपनी इस आज़ादी को गले लगा रही थी, लेकिन मन में एक सवाल भी था—क्या मैं सचमुच इतनी बेकाबू हो गई हूँ?

फिर मैंने खुद से कहा, "सोनाली, ज़िंदगी एक बार मिलती है। जो हुआ, उसे भूल और जो आएगा, उसे जी ले।"

तो दोस्तों, ये थी मेरी "काशीपुर की गलियाँ" की कहानी। मैंने इस गाँव में न सिर्फ़ अपनी वासना को जिया, बल्कि खुद को भी बेहतर समझा। अगली बार फिर मिलूँगी, एक नई दास्तान के साथ। तब तक अपनी चूत और लंड की मालिश करते रहो।

तुम्हारी प्यारी सोनाली।

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